ढलती शाम के साये
ढलने लगा है ये दिन... डूबने लगा सूरज, तो शाम चढ़ने लगी,
छाई रात की पहली पहर... ओढ़ने लगी साया की चादर, बेनूर की अंजाम बढ़ने लगी।
चढ़ती गई रात... सन्नाटा जो गहराता गया, तो ये खामोशी गढ़ने लगी,
शुरू हुए ये ख्वाब... बुनने लगे ये सपने, तो सियाही की छाया पड़ने लगी।
खत लिखने लगे... पहरे छपने लगे, ख़यालों से तहि काग़ज़ भरने लगे।
आँगन जो लिपटे ज़ुल्मत से... ये नज़ारे कोहरे से लगने लगे, ख़ल्वत ये आलम थमने लगी।